Sunday, 30 March 2014
ओ३म् (ॐ): भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ला एकम् 31 मार्च को
ओ३म् (ॐ): भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ला एकम् 31 मार्च को: भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ला एकम् 31 मार्च को इसदिन से प्रारम्भ होगा विक्रम संवत 2071 !! आओ स्वागत में जुट जायें। मेरा अपना नववर्ष ! आपका ...
Sunday, 2 March 2014
ओ३म् (ॐ): The Origin of Life on Earth
ओ३म् (ॐ): The Origin of Life on Earth: How did life begin on Earth? Though no one is ever likely to know the whole story, virtually everyone has wondered at one time or another...
ओ३म् (ॐ): Life
ओ३म् (ॐ): Life: What is life? Why is there life on Earth, but not on any other planets in the solar system (as far as we know…). Life on Earth occurs in a...
Saturday, 1 March 2014
ओ३म् (ॐ): What is Life?
ओ३म् (ॐ): What is Life?: What is life? Does this sound like a strange question to you? Of course we all know what is meant by the word "life", but how w...
Tuesday, 18 February 2014
ओ३म् (ॐ): अच्छी फोटो खींचने के लिए इन्हें ध्यान में रखें (भा...
ओ३म् (ॐ): अच्छी फोटो खींचने के लिए इन्हें ध्यान में रखें (भा...: फ़ोटोग्राफ़ी में रूचि लेने वाले अधिकांश व्यक्तियों को यह लगता है कि नए मॉडल का बेहतरीन कैमरा खरीद लेने पर उनकी फोटोग्राफी निखर जाएगी. अच्...
ओ३म् (ॐ): नेट की स्पीड रहेगी आपके हाथ में
ओ३म् (ॐ): नेट की स्पीड रहेगी आपके हाथ में: अक्सर जब किसी और साईट को खोलने पर नेट की स्पीड कम हो जाती है वेब साईट खुलने में बहुत टाइम लग जाता है तो आज में आपकी इसी समस्या का हल ले...
ओ३म् (ॐ): देखिए एप्पल के भव्य स्पेसशिप हेडक्वार्टर के अं...
ओ३म् (ॐ): देखिए एप्पल के भव्य स्पेसशिप हेडक्वार्टर के अं...: एप्पल का नया क्यूपरटिनों में बन रहा स्पेस हेडक्वाटर अपने आप में किसी अलग दुनिया की तरह है जिसमें हर सुविधा दी गई है। एप्पल का नया कै...
Monday, 10 February 2014
विमानशास्त्र का भारतीय इतिहास-२
महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पांच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊंचाई पर विभिन्न आवर्त्त दृद्ध ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म का उल्लेख करते हैं और उस-उस ऊंचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊंचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहां कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।
आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है-
(१) रेखा पथ- शक्त्यावृत-
ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म दृढ ड्ढदड्ढद्धढ़न्र्
ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म दृढ ड्ढदड्ढद्धढ़न्र्
(२) मंडलपथ – वातावृत्त-
ज़्त्दड्ड
ज़्त्दड्ड
(३) कक्ष पथ – किरणावृत्त-
च्दृथ्ठ्ठद्ध द्धठ्ठन्र्द्म
च्दृथ्ठ्ठद्ध द्धठ्ठन्र्द्म
(४) शक्ति पथ – सत्यावृत्त-
क्दृथ्ड्ड ड़द्वद्धद्धड्ढदद्य
क्दृथ्ड्ड ड़द्वद्धद्धड्ढदद्य
(५) केन्द्र पथ – घर्षणावृत्त-
क्दृथ्थ्त्द्मत्दृद
क्दृथ्थ्त्द्मत्दृद
वैमानिक का खाद्य-इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो, इसका वर्णन है। उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज तो विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे। अत: युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है।
एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गई है कि वैमानिक को खाली पेट विमान नहीं उड़ाना चाहिए। इस संदर्भ में बंगलोर के श्री एम.पी. राव बताते हैं कि भारतीय वायुसेना में सुबह जब फाइटर प्लेन को वैमानिक उड़ाते थे तो कभी-कभी दुर्घटना हो जाती थी। इसका विश्लेषण होने पर ध्यान में आया की वैमानिक खाली पेट विमान उड़ाते हैं तब ऐसा होता है। अत: १९८१ में वायु सेना में खाना देने की व्यवस्था शुरू की।
विमान के यंत्र- विमान शास्त्र में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है? इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है-
(१) विश्व क्रिया दर्पण-इस यंत्र के द्वारा विमान के आस-पास चलने वाली गति-विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक (ग्त्ड़ठ्ठ) तथा पारा (थ्र्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्) आदि का प्रयोग होता था।
(२) परिवेष क्रिया यंत्र- इसमें स्वचालित यंत्र वैमानिक (ॠद्वद्यदृ घ्त्थ्दृद्य द्मन्र्द्मद्यड्ढथ्र्) का वर्णन है।
(३) शब्दाकर्षण यंत्र- इस यंत्र के द्वारा २६ कि.मी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।
(४) गुह गर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती थी।
(५) शक्त्याकर्षण यंत्र- विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और वह उष्णता वातावरण में छोड़ना।
(६) दिशा दर्शी यंत्र- दिशा दिखाने वाला यंत्र।
(७) वक्र प्रसारण यंत्र-इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।
(८) अपस्मार यंत्र- युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।
(९) तमोगर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। इनके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।
उर्जा स्रोत- विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भारद्वाज उल्लेख करते हैं। (१) वनस्पति तेल, जो पेट्रोल की भांति काम करता है। (२) पारे की भाप (ग्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र् ध्ठ्ठद्रदृद्वद्ध) प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किये जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमरीका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया। परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा के रूप में उपयोग किया जा सकता है। आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है। (३) सौर ऊर्जा-इसके द्वारा भी विमान चलता था। (४) वातावरण की ऊर्जा- बिना किसी अन्य साधन के सीधे वातावरण से शक्ति ग्रहण कर विमान, उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरती है उसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। अमरीका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं। यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापक विचार हुआ था।
विमान के प्रकार- विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते है। मंत्रिका प्रकार के विमान, जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी, वह सतयुग और त्रेता युग में संभव था। इसमें २५ प्रकार के विमान का उल्लेख है। द्वापर युग में तांत्रिका प्रकार के विमान थे। इनके ५६ प्रकार बताये गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे, इनके २५ प्रकार बताये गए हैं। इनमें शकुन, रूक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे।
उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएं व प्रश्न हमारे सामने आकर खड़े होते हैं। समस्या यह कि आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान, जो संस्कृत में अभिव्यक्त हुआ, उसकी शब्दावली, उनका अर्थ तथा नियमावली हम जानते नहीं। अत: उसमें निहित रहस्य को अनावृत (क़्ड्ढड़दृड्डड्ढ) करना पड़ेगा। दूसरा, प्राचीनकाल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए, इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से, गूढ़ रूप में, अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी। अत: उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है, जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों।
विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं
दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई भाग ऐसा है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके। यदि ऐसा कोई भाग है तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं? क्या उनमें कुछ सफलता मिली है?
दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई भाग ऐसा है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके। यदि ऐसा कोई भाग है तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं? क्या उनमें कुछ सफलता मिली है?
सौभाग्य से उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर हां में दिए जा सकते हैं। हैदराबाद के डा. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा, तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में से कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने हेतु लगने वाली मिश्र धातुओं को बनाने की जो विधि लोहाधिकरण में दी गई है, उनके अनुसार मिश्र धातुओं का निर्माण संभव है या नहीं, इस हेतु प्रयोग करने का विचार उनके मन में आया। प्रयोग हेतु डा. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी.एम.बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातु, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प लिया और उनके परिणाम आशास्पद हैं। अपने प्रयोगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है। इडद्ध/ऊ
प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह। विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड में भी नहीं गलती।
प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह। विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड में भी नहीं गलती।
दूसरी धातु जो बनाई है उसका नाम है पंच लौह। यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर और भारी है। तांबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है जबकि अमरीका में भी अमरीकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ट मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत तक संभव है, यह माना है। इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है।
तीसरी धातु है आरर। यह तांबा आधारित मिश्र धातु है जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है। इस धातु में ङड्ढद्मत्द्मद्यठ्ठदड़ड्ढ द्यदृ थ्र्दृत्द्मद्यद्वद्धड्ढ का गुण है। बी.एम. बिरला साइंस सेन्टर (हैदराबाद) के डायरेक्टर डा. बी.जी. सिद्धार्थ ने इन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी १८ जुलाई, १९९१ को एक पत्रकार परिषद् में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियां, पत्ते, गौंद, पेड़ की छाल आदि का भी उपयोग होता है। इस कारण जहां इनकी लागत कम आती है, वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं। उन्होंने कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेगें तो यह देश के भविष्य के विकास की दृष्टि से अच्छा होगा। उपर्युक्त पत्रकार परिषद् को ‘वार्ता‘ न्यूज एजेन्सी ने जारी किया तथा म.प्र. के नई दुनिया, एम.पी.क्रानिकल सहित देश के अनेक समाचार पत्रों में १९ जुलाई को यह प्रकाशित हुए।
इसी प्रकार आई.आई.टी. (मुम्बई) के रसायन शास्त्र विभाग के. डा. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया। ये थे चुम्बकमणि, जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन (रिफ्लेक्शन) को अधिगृहीत (कैप्चर) करने का गुण है। पराग्रंधिक द्रव-यह एक प्रकार का एसिड है, जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है।
इसी प्रकार महर्षि भरद्वाज कृत अंशुबोधनी ग्रंथ में विभिन्न प्रकार की धातु तथा दर्पणों का वर्णन है। इस पर वाराणसी के हरिश्चंद्र पी.जी. कालेज के रीडर डा. एन.जी. डोंगरे ने क्ष्दड्डत्ठ्ठद ग़्ठ्ठद्यत्दृदठ्ठथ् च्ड़त्ड्ढदड़ड्ढ ॠड़ठ्ठड्डड्ढर्थ्न्र् के सहयोग से एक प्रकल्प लिया। प्रकल्प का नाम था च्ण्ड्र्ढ द्मद्यद्वड्डन्र् दृढ ध्ठ्ठद्धत्दृद्वद्म थ्र्ठ्ठद्यड्ढद्धत्ठ्ठथ्द्म ड्डड्ढद्मड़द्धत्डड्ढड्ड त्द ॠथ्र्द्मद्वडदृड्डण्त्दत् दृढ ग्ठ्ठण्ठ्ठद्धद्मण्त् एण्ठ्ठद्धठ्ठड्डध्र्ठ्ठत्र्ठ्ठ.
इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण को बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी (जमशेदपुर) में किया तथा वहां के निदेशक पी.रामचन्द्र राव, जो आजकल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसका नाम प्रकाश स्तंभन भिद् लौह है। इसकी विशेषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्र्ारेड प्रकाश को जाने देता है। इसका निर्माण इनसे होता है-
कचर लौह- च्त्थ्त्ड़ठ्ठ
भूचक्र सुरमित्रादिक्षर- ख्र्त्थ्र्ड्ढ
अयस्कान्त- ख्र्दृड्डड्ढद्मद्यदृदड्ढ
रुरुक- क़्ड्ढड्ढद्धडदृदड्ढ ठ्ठद्मण्
भूचक्र सुरमित्रादिक्षर- ख्र्त्थ्र्ड्ढ
अयस्कान्त- ख्र्दृड्डड्ढद्मद्यदृदड्ढ
रुरुक- क़्ड्ढड्ढद्धडदृदड्ढ ठ्ठद्मण्
इनके द्वारा अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया। प्रकाश स्तंभन भिद् लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन हाइग्रोस्कोपिक है। हाइग्रोस्कोपिक इन्फ्र्ारेड वाले कांचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश हट जाता है और वे बेकार हो जाते हैं। आजकल क्ठ्ठक़२ यह बहुत अधिक हाईग्रोस्कोपिक है। अत: इनके यंत्रों के प्रयोग में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है जबकि प्रकाश स्तंभन भिद् लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्र्ारेड सिग्नल्स में (२ द्यदृ ५छ) (१थ्र्उ१०-४क्थ्र्) तक की रेंज में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महर्षि भरद्वाज प्रणीत ग्रंथ के विभिन्न अध्यायों में से एक अध्याय पर हुए कुछ प्रयोगों की सत्यता यह विश्वास दिलाती है कि यदि एक ग्रंथ का एक अध्याय ठीक है तो अन्य अध्याय भी ठीक होंगे और प्राचीनकाल में विमान विद्या कपोल-कल्पना न होकर एक यथार्थ थी। इसका विश्वास दिलाती है। यह विश्वास सार्थक करने हेतु इस पुस्तक के अन्य अध्याय अपनी सत्यता की सिद्धि हेतु साहसी संशोधकों की राह देख रहे हैं।
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विमान शास्त्र का भारतीय इतिहास-१
साधारणतया यह माना जाता है कि पक्षियों की तरह आकाश में उड़ने का मानव का स्वप्न राइट बंधुओं ने १७ दिसम्बर, १९०३ में विमान बनाकर पूरा किया। और विमान विद्या विश्व को पश्चिम की देन है। इसमें संशय नहीं कि आज विमान विद्या अत्यंत विकसित अवस्था में पहुंची है। परन्तु महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था। न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी। इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वाङ्गमय में मिलते हैं।
विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ‘इन्द्रविजय‘ नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था। पुराणों में विभिन्न देवी-देवता, यक्ष, विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं, इस प्रकार के उल्लेख आते हैं। त्रिपुरासुर यानी तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था, जो पृथ्वी, जल व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया। रामायण में पुष्पक विमान का वर्णन आता है। महाभारत में श्रीकृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है। भागवत में कर्दम ऋषि की कथा आती है। तपस्या में लीन रहने के कारण वे अपनी पत्नी की ओर ध्यान नहीं दे पाए। इसका भान होने पर उन्होंने अपने विमान से उसे संपूर्ण विश्व का दर्शन कराया।
उपर्युक्त वर्णन जब आज का तार्किक व प्रयोगशील व्यक्ति सुनता या पढ़ता है तो उसके मन में स्वाभाविक विचार आता है कि ये सब कपोल कल्पनाएं हैं। मानव के मनोरंजन हेतु गढ़ी गई कहानियां हैं। ऐसा विचार आना सहज व स्वाभाविक है। क्योंकि आज देश में न तो कोई प्राचीन अवशेष मिलते हैं जो यह सिद्ध करें कि प्राचीन काल में विमान थे, न ऐसे ग्रंथ मिलते हैं जिनसे यह ज्ञात हो कि प्राचीन काल में विमान बनाने की तकनीक लोग जानते थे।
केवल सौभाग्य से एक ग्रंथ उपलब्ध है, जो बताता है कि भारत में प्राचीन काल में न केवल विमान विद्या थी, अपितु वह बहुत प्रगत अवस्था में भी थी। यह ग्रंथ, इसकी विषय सूची व इसमें किया गया वर्णन विगत अनेक वर्षों से देश-विदेश में अध्येताओं का ध्यान आकर्षित करता रहा है।
गत वर्ष दिल्ली के एक उद्योगपति श्री सुबोध से प्राचीन भारत में विज्ञान की स्थिति के संदर्भ में बात हो रही थी। बातचीत में उन्होंने अपना एक अनुभव बताया। सुबोध जी के छोटे भाई अमरीका के नासा में काम करते हैं। १९७३ में एक दिन उनका नासा से फोन आया कि भारत में महर्षि भारद्वाज का विमानशास्त्र पर कोई ग्रंथ है, वह नासा में कार्यरत उनके अमरीकी मित्र वैज्ञानिक को चाहिए। यह सुनकर सुबोध जी को आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्होंने भी प्रथम बार ही इस ग्रंथ के बारे में सुना था। बाद में उन्होंने प्रयत्न करके मैसूर से वह ग्रंथ प्राप्त कर उसे अमरीका भिजवाया। सन् १९५० में गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण‘ के ‘हिन्दू संस्कृति‘ अंक में श्री दामोदर जी साहित्याचार्य ने ‘हमारी प्राचीन वैज्ञानिक कला‘ नामक लेख में इस ग्रंथ के बारे में विस्तार से उल्लेख किया था।
अभी दो तीन वर्ष पूर्व बंगलूरू के वायुसेना से सेवानिवृत्त अभियंता श्री प्रह्लाद राव की इस विषय में जिज्ञासा हुई और उन्होंने अपने साथियों के साथ एरोनॉटिकल सोसाइटी आफ इंडिया के सहयोग से एक प्रकल्प ‘वैमानिक शास्त्र रीडिस्कवर्ड‘ लिया तथा अपने गहन अध्ययन व अनुभव के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि इस ग्रंथ में अत्यंत विकसित विमान विद्या का वर्णन मिलता है। नागपुर के श्री एम.के. कावड़कर ने भी इस ग्रंथ पर काफी काम किया है।
महर्षि भरद्वाज ने ‘यंत्र सर्वस्व‘ नामक ग्रंथ लिखा था, उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है। इस पर बोधानंद ने टीका लिखी थी। आज ‘यंत्र सर्वस्व‘ तो उपलब्ध नहीं है तथा वैमानिक शास्त्र भी पूरा उपलब्ध नहीं है। पर जितना उपलब्ध है, उससे यह विश्वास होता है कि पूर्व में विमान एक सच्चाई थे।
वैमानिक शास्त्र के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख हैं अगस्त्य कृत-शक्तिसूत्र, ईश्वर कृत-सौदामिनी कला, भरद्वाज कृत-अंशुबोधिनी, यंत्र सर्वस्व तथा आकाश शास्त्र, शाक्टायन कृत- वायुतत्व प्रकरण, नारद कृत-वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि। विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानंद लिखते हैं-
निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनि:।
नवनीतं समुद्घृत्य यंत्रसर्वस्वरूपकम्॥
प्रायच्छत् सर्वकोकानामीपिस्तार्थफलप्रदम्॥
नानाविमानवैतित्र्यरचनाक्रमबोधकम्।
अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैयुर्तम्॥
सूत्रै: पश्चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्।
वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवता स्वयम्॥
नवनीतं समुद्घृत्य यंत्रसर्वस्वरूपकम्॥
प्रायच्छत् सर्वकोकानामीपिस्तार्थफलप्रदम्॥
नानाविमानवैतित्र्यरचनाक्रमबोधकम्।
अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैयुर्तम्॥
सूत्रै: पश्चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्।
वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवता स्वयम्॥
अर्थात्-भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यंत्र सर्वस्व नाम का एक मक्खन निकाला है, जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है। उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण है जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गये हैं। यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पांच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है।
ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भरद्वाज मुनि विमान शास्त्र के उनसे पूर्व हुए आचार्य तथा उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं। वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार थे।
(१) नारायण कृत-विमान चंद्रिका (२) शौनक कृत- व्योमयान तंत्र (३) गर्ग कृत-यंत्रकल्प (४) वाचस्पतिकृत-यान बिन्दु (५) चाक्रायणीकृत- खेटयान प्रदीपिका (६) धुण्डीनाथ- वियोमयानार्क प्रकाश
इस ग्रंथ में भरद्वाज मुनि ने विमान का पायलट, जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया है।
विमान की परिभाषा
नारायण ऋषि कहते हैं-जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेगपूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है।
शौनक के अनुसार-एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके, विश्वम्भर के अनुसार- एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं।
रहस्यज्ञ अधिकारी (घ्त्थ्दृद्य)-भरद्वाज मुनि कहते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभांति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है क्योंकि विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना, चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना- इसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है। अत: जो इन रहस्यों को जानता है वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है। इन बत्तीस रहस्यों में कुछ प्रमुख रहस्य निम्न प्रकार हैं।
(३) कृतक रहस्य- बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार विश्वकर्मा, छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्र के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बनाना, इसमें हम कह सकते हैं कि यह ‘हार्डवेयर‘ का वर्णन है।
(५) गूढ़ रहस्य-यह पांचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने की विधि दी गई है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गई रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा, वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण में रहने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बंध बनाने पर विमान छिप जाता है।
(९) अपरोक्ष रहस्य-यह नवां रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गई रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
(१०) संकोचा-यह दसवां रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ते समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।
(११) विस्तृता-यह ग्यारहवां रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा करना। यहां यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।
(२२) सर्पागमन रहस्य-यह बाईसवां रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख से जो तिरछे फेंकने वाला केन्द्र है उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति सांप के समान टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है।
(२५) परशब्द ग्राहक रहस्य-यह पच्चसीवां रहस्य है। इसमें कहा गया है कि सौदामिनी कला ग्रंथ के अनुसार शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बातचीत सुनी जा सकती है।
(२६) रूपाकर्षण रहस्य- इसके द्वारा दूसरे विमान के अंदर सब देखा जा सकता है।
(२८) दिक्प्रदर्शन रहस्य-दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा ध्यान में आती है।
(३१) स्तब्धक रहस्य-एक विशेष प्रकार के अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग बेहोश हो जाते हैं।
(३२) कर्षण रहस्य-यह बत्तीसवां रहस्य है। इसके अनुसार अपने विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्रवानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्की की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार से उस शक्ति को फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।
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Friday, 7 February 2014
ओ३म् (ॐ): रामसेतु
ओ३म् (ॐ): रामसेतु: रामसेतु (Ramasetu) एक आश्चर्यजनक ऐतिहासिक पक्ष है जो भौतिक रूप में उत्तर में बंगाल की खाड़ी को दक्षिण में शांत और स्वच्छ पानी वाली मन्नार ...
Monday, 3 February 2014
लो अंतरिक्ष में उगने लगी मटर, साग और गेहूं!
मास्को। अंतरिक्ष यात्रियों ने अंतरिक्ष में प्रयोग के तौर पर फसलें उगाई हैं, जो खाने के लिए पूरी तरह से सुरक्षित हैं। यह खेती अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पर 'लाडा' नामक एक ग्रीनहाउस में की जा रही है।
अंतरिक्ष स्टेशन पर मौजूद वैज्ञानिकों ने अब तक मटर, साग और छोटे गेहूं का उत्पादन किया है। ये सभी खाने के लिए सुरक्षित होने का प्रमाणपत्र हासिल कर चुके हैं। यह जानकारी रूस के इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल प्रोब्लम के रूसी शोधार्थी मार्गरीटा लेविंस्किख ने हाल में मास्को में आयोजित सालाना अंतरिक्ष सम्मेलन में दी।
इस साल ग्रीनहाउस की मरम्मत होगी और इसमें चावल, टमाटर और शिमला मिर्च लगाए जाएंगे। अंतरिक्ष में उगे ये फसल आखिरकार अंतरिक्ष में तैनात वैज्ञानिकों के लिए आहार का काम करेंगे। वैज्ञानिक फिलहाल यह पता लगाएंगे कि क्या अंतरिक्ष में उगाए जाने से इनके जीन में कोई बदलाव आ जाता है। अंतरिक्ष में बस्ती बसाने के सपने को देखते हुए यह उपलब्धि उत्साहवर्धक है।
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चेहरे में छुपा तकदीर का राज, जानें अपनी किस्मत को
चेहरा व्यक्ति की पहचान होता है। किंतु अच्छा या बुरा चेहरा होना उसकी खूबसूरती या बदसूरती से नियत नहीं होता, बल्कि अच्छे या बुरे कर्म भी सुन्दर चेहरे को बदसूरत और बिगड़ी सूरत को खूबसूरत बनाने में निर्णायक होते हैं। यही चेहरा मन के भावों को उजागर भी कर देता है। किंतु कुछ लोग चेहरे के भावों को छुपाने की कला में भी महिर होते है और अपने स्वार्थ या मंशा को पूरा करने के लिए नकली चेहरे को असली चेहरे के पीछे छुपा लेते हैं। व्यावहारिक जीवन के नजरिए से यही बात अनेक मौकों पर नुकसान या परेशानी का कारण भी बन जाती है।
वहीं दूसरी तरफ व्यक्ति के मन में भी खुद का जीवन कैसा होगा, यह जिज्ञासा भी रखता है। हिन्दू धर्म शास्त्र में लिखी कुछ रोचक बातें ऐसी ही जिज्ञासा को शांत करने और अंजान पुरुष से व्यवहार करने के सूत्र बताती है। इन बातों में अलग-अलग सूरत वाले पुरुषों के गुण व स्वभाव बताए गए हैं।
हिन्दू धर्म ग्रंथ भविष्यपुराण के मुताबिक जब भगवान शिव ने विवाद के बाद पुत्र कार्तिकेय द्वारा लिखे गए लक्षण शास्त्र को समुद्र में फेंक दिया, तब कार्तिकेय स्वामी के निवेदन पर ब्रह्मदेव ने पुरुषों की मुख से पहचान के लक्षणों को उनको फिर से स्मरण कराया।
यहां जानते हैं पुरुषों के मुख से जुड़ी ऐसी ही रोचक बातें -
- चन्द्रमा की रोशनी की तरह चमकदार और शांत चेहरे वाला भला और धर्मात्मा पुरुष होता है।
- वानर या बकरें जैसे मुख वाला पुरुष धनवान होता है।
- खूबसूरत और तेजयुक्त हाथी के मुख की तरह भरे चेहरे वाला राजा यानि राजसी स्वभाव का होता है।
- सूंड के आकार जैसे लम्बे चेहरे वाला पुरुष बदकिस्मत होता है।
- बदसूरत, टेढ़ा, टूटा और शेर की तरह चेहरा चोर व्यक्ति की पहचान है।
- लंबा, छोटा और कुटील भाव से भरे मुख वाला पुरुष गरीब और पापी होता है।
- औरत जैसा, चौकोर चेहरे वाला पुरुष पुत्रहीन होता है।
- जिसके गाल कमल जैसे लाल और चमकदार हो वह धनवान और किसान होता है।
- हाथी, बाघ या शेर जैसे गालों वाला पुरुष सभी सुख और संपत्तियों का मालिक होता है।
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Sunday, 2 February 2014
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Saturday, 1 February 2014
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Friday, 31 January 2014
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ओ३म् (ॐ): Happiness
ओ३म् (ॐ): Happiness: From The Mahabharata King Yudhishthira said: By doing what does one acquire happiness, and what is that by doing which one meets with...
Who Am I?
Every living being longs always to be happy untainted by sorrow; and everyone has the greatest love for himself, which is solely due to the fact that happiness is his real nature. Hence, in order to realize that inherent and untainted happiness, which indeed he daily experiences when the mind is subdued in deep sleep, it is essential that he should know himself. For obtaining such knowledge the enquiry, ‘Who am I?’ in quest of the Self is the means par excellence.
‘Who am I?’ I am not this physical body, nor am I the five organs of sense perception.
[Note: The five organs of sense-perception are the eye, ear, nose, tongue and the skin, with their respective corresponding functions of sight, hearing, smell, taste and touch.]
I am not the five organs of external activity.
[Note: The five organs of external activity are the vocal organs that articulate speech and produce sound, hands and feet that govern the movements of the physical body, anus that excretes fecal matter, and the genital organ for procreation and which yields pleasure.]
I am not the five vital forces.
[Note: These vital forces control respiration, digestion and assimilation, circulation of blood, perspiration and excretion.]
I am not even the thinking mind. Neither am I that unconscious state of nescience, which retains merely the subtle Vasanas (latent impressions or mental tendencies), being then free from the functional activity of the sense organs and of the mind, and being unaware of the existence of the objects of sense perception.
Therefore, summarily rejecting all the above mentioned physical adjuncts and their functions, saying "I am not this; no, nor am I this, nor this," – that which then remains separate and alone by itself, that pure awareness verily am I. This awareness is by its very nature Sat-Chit-Ananda (Existence-Consciousness-Bliss).
If the mind, which is the instrument of knowledge and is the
basis of all activity, subsides, the perception of the world as an objective reality ceases. Unless the illusory perception of the serpent in the rope ceases, the rope on which the illusion is formed is not perceived as such. Even so, unless the illusory nature of the perception of the world as an objective reality ceases, the vision of the true nature of the Self, on which the illusion is formed, is not obtained.
basis of all activity, subsides, the perception of the world as an objective reality ceases. Unless the illusory perception of the serpent in the rope ceases, the rope on which the illusion is formed is not perceived as such. Even so, unless the illusory nature of the perception of the world as an objective reality ceases, the vision of the true nature of the Self, on which the illusion is formed, is not obtained.
The mind is a unique power (sakti) in the Atman (Self), whereby thoughts occur to oneself. On scrutiny as to what remains after eliminating all thoughts, it will be found that there is no such thing as mind apart from thought. So then, thoughts themselves constitute the mind.
Nor is there any such thing as the physical world apart from and independent of thought. In deep sleep there are no thoughts: nor is there the world. In the wakeful and dream states thoughts are present, and there is also the world.
Just as the spider draws out the thread of the cobweb from within itself and withdraws it again into itself, even so out of itself the mind projects the world and absorbs it back into itself.
The world is perceived as an apparent objective reality when the mind is externalized thereby forsaking its identity with the Self. When the world is thus perceived, the true nature of the Self is not revealed. Conversely, when the Self is realized, the world ceases to appear as an objective reality.
By a steady and continuous investigation into the nature of the mind, the mind is transformed into That to which the ‘I’ refers; and that is verily the Self. Mind has necessarily to depend for its existence on something gross; it never subsists by itself. It is this mind that is otherwise called the subtle body, the ego, the jiva or soul (individual soul).
That which arises in the physical body as ‘I’ is the mind. If one enquires whence the ‘I’-thought in the body arises in the first instance, it will be found that it is Hrdayam or the Heart.
[Note: The word ‘Hrdayam’ consists of two syllables, ‘Hrt’ and ‘Ayam’ which signify ‘I am the Heart’.]
That (Hrdayam or Heart) is the source and stay of the mind. Or again, even if one merely but continuously repeats inwardly ‘I – I’ with the entire mind fixed thereon, that also leads one to the same source.
The first and foremost of all the thoughts that arise in the mind is the primal ‘I’-thought. It is only after the rise or origin of the ‘I’-thought that innumerable other thoughts arise. In other words, only after the first personal pronoun, ‘I’, has arisen, do the second and third personal pronouns (you, he, etc.) occur to the mind; and they cannot subsist without the former.
Since every other thought can occur only after the rise of the ‘I’-thought and since the mind is nothing but a bundle of thoughts, it is only through the enquiry ‘Who am I?’ that the mind subsides. Moreover, the integral ‘I’-thought, implicit in such enquiry, having destroyed all other thoughts, gets itself finally destroyed or consumed, even like the stick used for stirring the burning funeral pyre gets consumed.
Even when extraneous thoughts sprout up during such enquiry, do not seek to complete the rising thought, but instead, deeply enquire within, ‘To whom has this thought occurred?’ No matter how many thoughts thus occur to you, if you would with acute vigilance enquire immediately as and when each individual thought arises as to whom it has occurred, you would find it is to ‘me.’ If then, you enquire ‘Who am I?’ the mind gets introverted and the rising thought also subsides. In this manner as you persevere more and more in the practice of Self-enquiry, the mind acquires increasing strength and power to abide in its source.
It is only when the subtle mind is externalized through the activity of the intellect and the sense-organs that gross name and form constituting the world appear. When, on the other hand, the mind stays and abides in the Heart, they (name and form) recede and disappear. Restraint of the out-going mind and its absorption in the Heart is known as introversion (antarmukha -drshti). The release of the mind and its emergence from the Heart is known as Bahirmukha-drishti (objeciveness).
If in this manner the mind becomes absorbed in the Heart, the ego or the ‘I’, which is the centre of the multitude of thoughts, finally vanishes and pure Consciousness or Self, which subsists during all the states of the mind, alone remains resplendent. It is this state, where there is not the slightest trace of the ‘I’-thought, that is the true Being of oneself. And that is called quiescence or Mouna.
This state of mere inherence in pure Being is known as the vision of wisdom. Such inherence means and implies the entire subsidence of the mind in the Self. Anything other than this and all psychic powers of the mind, such as thought- reading, telepathy and clairvoyance, cannot be wisdom.
Atma (atman) alone exists and is real. The world, the individual soul and God are, like the illusory appearance of silver in the mother of pearl, imaginary creations in the Atma. They appear and disappear simultaneously. Verily, the Self alone is the world, the ‘I’ and God. All that exists is but the manifestation of the Supreme.
For the subsidence of mind there is no other means more effective and adequate than self-enquiry. Even though by other means the mind subsides, that is only apparently so; it will rise again.
For instance, the mind subsides by the practice of pranayama (restraint and control of breath and vital forces); yet such subsidence lasts only as long as the control of breath and vital forces continues; and when they are released, the mind also gets released, and immediately becoming externalized it wearily wanders through the force of its subtle tendencies.
The source of the mind on the one hand, and of breath and vital forces on the other, is one and the same. It is really the multitudes of thoughts that constitute the mind; and the ‘I’-thought is the primal thought of the mind, and that itself is the ego. Now, breath too has its origin at the same place whence the ego rises. Therefore, when the mind subsides, breath and vital forces also subside; and conversely, when the latter subside, the former also subsides.
Breath and vital forces are also described as the gross manifestation of the mind. Till the hour of death the mind sustains and supports these forces in the physical body, and when life becomes extinct, the mind envelopes and carries them away. During sleep, however, the vital forces continue to function, although the mind is not manifest. This is according to the divine law and is intended to protect the body and to remove any possible doubt as to whether it is dead or alive while one is asleep. Without such arrangement by nature, sleeping bodies would often be cremated alive. The vitality apparent in breathing is left behind by the mind as a ‘watchman’. But in the wakeful state and in samadhi, when the mind subsides, prana (Vital force) also subsides. For this reason (viz., that the mind has the sustaining and controlling power over breath and vital forces and is therefore ulterior to both of them), the practice of pranayama is merely helpful in subduing the mind but cannot bring about its final extinction.
Even like pranayama, Murti-Dhyana (meditation on form), Mantra or Nama-Japa (repetition of sacred syllables or of names of deities), and the regulation of diet, are only aids to control the mind. Through the practice of Dhyana or Japa the mind becomes one-pointed. Just as the elephant’s trunk, which is otherwise restless, will become steady if it is made to hold an iron chain- so that the elephant walks (goes) his way without reaching out any other object- even so the ever-restless mind, which is trained and accustomed to a name or form through Dhyana or Japa, will steadily hold on to that alone.
When the mind is split up and dissipated into countless and varying thoughts, each individual thought becomes extremely weak and inefficient. When, on the contrary, such thoughts subside more and more till they finally get destroyed, the mind becomes one-pointed, and thereby acquiring strength and sustaining power, easily reaches perfection in the method of enquiry in quest of the Self.
Regulation of diet, restricting it to Satvic food (i.e. simple and nutritious food that sustains but does not stimulate the physical body), taken in moderate quantity, is of all the rules of conduct the best; and it is most conducive to the development of the satvic qualities of the mind.
[Note: Satvic qualities: Purity,Self-restraint, evenness of temper, tenderness towards all beings, fortitude, freedom from desire, freedom from hatred and arrogance are the outstanding virtues of the satvic mind.]
These satvic qualities in their turn, assist one in the practice of Atmavichara or enquiry in quest of the Self.
Countless Vishaya-Vasanas (subtle tendencies of the mind in relation to objects of sense-gratification), that come one after the other in quick succession like the waves of the ocean, agitate the mind. Nevertheless, they too subside and finally get destroyed with progressive practice of Atmadhyana or meditation on the Self. Without giving room even to the thought which occurs in the form of doubt, whether it is possible to stay merely as the very Self, whether all the Vasanas can be destroyed, one should firmly and unceasingly carry on meditation on the Self.
However sinful a person may be, if he would stop wailing inconsolably, ‘Alas! I am a sinner, how shall I attain salvation?’ and casting away even the thought that he is a sinner, if he would zealously carry on meditation on the Self, he would most assuredly get reformed.
So long as Vishaya-Vasanas (subtle tendencies of the mind in relation to objects of sense-gratification) continue to inhere in the mind, it is necessary to carry on the enquiry, ‘Who am I?’ As and when thoughts occur, they should, one and all, be annihilated then and there, at the very place of their origin, by the method of enquiry in quest of the Self.
Not to desire anything extraneous to oneself constitutes Vairagya (dispassion) or Nirasa (desirelessness). Not to give up one’s hold on the Self constitutes Jnana (Knowledge). But really Vairagya and Jnana are one and the same. Just as the pearl-diver, tying stones to his waist, dives down into the depths, and gets the pearl from the sea bed, even so every aspirant, pledged to Vairagya can dive deep into himself and realise the precious Atman. If the earnest seeker would only cultivate the constant and deep contemplative ‘remembrance’ smrti) of the true nature of the Self till he has realised it, that alone would suffice. Distracting thoughts are like the enemy in the fortress. As long as they are in possession of it, they will certainly sally forth. But if you would, as and when they come out, put them to the sword, the fortress will finally be captured.
God and the Guru (Master or teacher) are not really different: they are identical. He that has earned the grace of the Guru shall undoubtedly be saved and never forsaken, just as the prey that has fallen into the tiger’s jaws will never be allowed to escape. But the disciple, for his part, should unswervingly follow the path shown by the Master.
Firm and disciplined inherence in the Atman (Atmanishtha), without giving the least scope for the rise of any thought other than the deep contemplative thought of the Self, does verily constitute self-surrender to the Supreme Lord. Let any amount of burden be laid on Him. He doth bear it all. It is, in fact, indefinable power of the Lord that ordains, sustains and controls everything that happens. Why then, should we languish tormented by vexatious thought, saying ‘This wise (way) to act; but no, that way ……..’, instead of meekly but happily submitting ourselves to that power? Knowing full well that the train carries all the weight, why indeed should we, the passengers travelling in it, carry the small individual articles of luggage on our laps to our great discomfort, instead of putting them aside and sitting at perfect ease?
That which is Bliss is verily the Self. Bliss and the Self are not distinct and separate but are one and identical. And That alone is real. Not even in one of the countless objects of the mundane world is there anything that can be called happiness. It is through sheer ignorance and unwisdom we fancy that happiness is obtained from them. On the contrary, when the mind is externalized, it suffers pain and anguish. The truth is that every time our desires get fulfilled, the mind turning to its source experiences only that happiness which is natural to the Self. Similarly, in deep sleep, in spiritual trance (samadhi), in a state of swoon etc., when the desired object is obtained or when evil befalls an object considered undesirable, the mind turns within and enjoys that Bliss of Atman. In this manner, wandering astray forsaking the Self and returning back again to it within, is the interminable and wearisome lot of the mind.
It is pleasant under the shade of a tree; scorching is the heat of the sun without. A person toiling in the sun seeks the cool shade of the tree and is happy under it. Staying there for a while, he moves about, but unable to bear the merciless heat of the sun, he seeks the shade again. In this way, he moves, going out from the shade into the sun, and coming into the shade from the sun without.
He that acts in this manner is the unwise one. Whereas the wise one never leaves the shade. Even so the mind of the enlightened sage (Jnani) never exists apart from Brahman, the Absolute. The mind of the ignorant one, on the other hand, entering into the phenomenal world, suffers pain and anguish, and then turning for a short while towards Brahman, it experiences happiness. Such is the mind of the ignorant one.
This phenomenal world, however, is nothing but thought. When the world recedes from one’s view - that is when free from thought- the mind enjoys the Bliss of the Self. Conversely, when the world appears – that is when thought occurs- the mind experiences pain and anguish.
Not from any desire, resolve or effort on the part of the rising sun, but merely due to the presence of his rays, the lens emits heat, the lotus blossoms, water evaporates and the individuals in society take up their respective avocations in life. In the proximity of the magnet the needle moves. Even so, the soul or jiva (individual soul), subjected to the three-fold activity of creation, preservation and destruction that take place merely due to the unique presence of the Supreme Lord, performs acts in accordance with its Karma, and subsides to rest after such activity.
[Note: Karma i.e., the fruits of past actions which are being worked out in present life.]
But the Lord Himself has no resolve. No act or event touches even the fringe of His being. This state of immaculate aloofness is likened unto that of the sun who is untouched by the activities of life, or unto that of the all-pervasive space, which is not affected by the interaction of the complex qualities of the other four elements.
All scriptures without any exception proclaim that for attaining salvation mind should be subdued, and having known that control of mind is their final conclusion, it is futile to make an interminable study of the scriptures. What is required for such control is actual enquiry regarding oneself by self-interrogation ‘Who am I?’ How then can this enquiry in quest of the Self be made merely by means of a study of the scriptures?
One should realise the Self by the eye of wisdom. Does Rama need a mirror that he may recognise himself as Rama? That to which the ‘I’ refers is within the five sheaths, whereas the scriptures are outside them.
[Note: The five sheaths are the physical, vital, mental, sheath of knowledge-experience and of Bliss.]
Therefore, to seek by means of the study of scriptures, the Self, that has to be realised by summarily rejecting even the five sheaths, would only be futile.
To enquire ‘Who am I that is in bondage?’ and to know one’s real nature is alone liberation. To keep the mind constantly turned within and to abide thus in the Self, is alone Atma- Vichara (self-enquiry), whereas Dhyana (meditation) consists in fervent contemplation of the Self as Sat-Chit-Ananda (Existence-Consciousness-Bliss). Indeed, at sometime, one will have to forget everything that has been learnt.
Just as it is futile to examine the rubbish that has to be swept up only to be thrown away, even so it is futile for him who seeks to know the Self, if instead of casting away the Tattvas that envelope the Self, he sets himself to enumerate them or to xamine their qualities.
[Note: Tattvas are the elements into which phenomenal existence- from the subtle mind up to the gross matter-is classified.]
He should on the other hand, consider the phenomenal world with reference to himself as merely a dream.
Except that the wakeful state is long and the dream state is short, there is no other difference between the two. All the activities of the dream state appear, for the time being, just as real as the activities of the wakeful state seem to be while awake. Only, during the dream state the mind assumes another form or a different bodily sheath. For, thoughts on the one hand, and name and form on the other, occur simultaneously during both the wakeful and dream states.
There are not two minds, one good and the other evil. It is only the Vasanas or tendencies of the mind that are of two kinds, good and favourable, evil and unfavourable. When the mind is associated with the former, it is called good, and when associated with the latter, it is called evil. However evil-minded other people may appear to you, it is not proper to hate or despise them. Likes and dislikes, love and hatred are equally to be eschewed. It is also not proper to let the mind often rest on objects or affairs of mundane life. As far as possible one should not interfere in the affairs of others. Everything offered to others is really an offering to one self; and if only this truth is realised, who is there that would refuse anything to others?
If the ego rises, all else will also rise; if it subsides, all else will also subside. The deeper the humility with which we conduct ourselves, the better it is for us. If only the mind is kept under control, what does it matter where one may happen to be?
Sri Ramanasramam
Wednesday, 29 January 2014
Jai ho "जय हो": How to Make Someone Happy
Jai ho "जय हो": How to Make Someone Happy: Making someone happy is like lighting a candle. You don't lose a thing and the light increases. When we make someone happy, the...
How to Make Someone Happy
Making someone happy is like lighting a candle. You don't lose a thing and the light increases. |
I admit it can be quite difficult to make certain people happy. There too, I have an observation: when you just can't make the other person happy no matter what you do or how hard you try, chances are you are no longer on their play-field. Mentally, they may have given you the red card. They have decided not to source their happiness from you. If you speak to them asking what do they really expect from you and they are not being reasonable, you will never be able to make them happy, not for long anyway. In that case, if you have a choice, move on. And if you don't have a choice — seek a peaceful refuge within.
A man got married to the woman of his dreams. He was head over heels for her and couldn't believe his luck when she agreed to marry him. After their engagement and before the actual wedding, every night he thought about her. He had no doubts that theirs was going to be the most loving, functional and finest married life ever known to the mankind. His fiancée had a high opinion of herself. (When you believe you are better or superior than your partner — you can forget about happy marriage.) They got married with great fanfare. His wife loved eggs for breakfast. So, when they were away on their honeymoon, the husband made poached eggs for her in the morning.
"These aren't done right," she said scornfully.
The man felt bad that he couldn't please his wife and made even greater effort the following morning.
"Oh, I can't eat poached eggs everyday, y'know." She refused to eat them today.
He made scrambled eggs the next morning.
"It's okay but too fatty. Just boiled eggs with salt and pepper would have been better."
The next morning, to give her a choice, he brought out two dishes: a plate of scrambled eggs and two boiled eggs. He was certain that today she would be happy.
"What's this? You boiled the wrong egg," she screamed.
You know where this marriage is headed. Should I tell you the easiest way to make the other person happy? No, it's not flowers, things, gifts; they play a part but there is something even more important. The easiest way to make someone happy is to appreciate them. When you make the other person feel that you understand they are trying, that, you appreciate what they are doing for you and for the relationship, this right away boosts their self-esteem and morale. When you make an effort to appreciate, you directly gain from it as well. How? You actually start to see their efforts. Let's face it, it is not an easy world out there. When you say, thank you for everything you are doing, or, you've cooked a tasty meal, or, I know you are working very hard, or, I can imagine how you must get so tired by the end of the day, and so on, each such utterance brings you closer, it strengthens the relationship, it fosterslove and understanding.
Once, a woman, a master cook, was asked that her husband must love her food and what did he usually say when he savored the delicacies she cooked on a daily basis?
"He only speaks about food when something's amiss or if he doesn't like it," she said. "So, when he's quiet, I know he's enjoying it."
"Initially, I would ask him if he liked my cooking but it irked him so I stopped asking," she added.
Sadly, this is not a joke. I've quoted a real incident. To the waiter we don't know, we say smilingly how delicious the food is, we tip, we appreciate, but to the one who's closer to you, every courtesy is withdrawn. See the disparity?
When you make it a point to appreciate, the newness never fades away. And when something remains new, you never get bored of it. And when you don't get bored, you never take it for granted. And when you don't take the other person for granted, your relationship can never wither away. Yes, never. It'll continue to blossom and spread fragrance. Appreciation is gratitude in action.
http://www.omswami.com/2013/11/how-to-make-someone-happy.html
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